रंग डगर
खुशबू का सफ़र
फिर शुरू है ।
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साँस का तारा
नीले मजाऱ पर
अकेला फूल ।
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कुनमुनाया
बादल के कँधे पे
उनींदा चाँद ।
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जपा-कुसुम
खिले, दहके, झरे
तुम न फिरे ।
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हर सिंगार
रोए, उमर भर
पत्तों पे सोए ।
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उन के बिन
फिर लौट आए हैं
चोटों के दिन ।
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बादर कारे
जल भरे गुब्बारे
फूटे, बरसे ।
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कोयल गाती
हरी आम की शाख
आग लगाती ।
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फूलों की टोपी
हरियाली का कुर्त्ता
दूल्हा वसन्त ।
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बाँसों के बन
मन चली हवा ने
बजाई सीटी ।
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तन फागुन
मन रंग-अबीर
मुग्धा अधीर ।
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ठूँठ भी हँसे
चैत की मस्ती देख
कल्ले फाड़ के ।
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रजनी गंधा
हँसती सारी रात
सुबह सोती ।
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चिड़ियाँ रानी
चार कनी बाजारा
दो घूँट पानी ।
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नाचती हवा
डफ़ली बजाता है
प्रेमी महुआ ।
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युवा वैष्णवी
जोगिया टेसू धारे
वन में खड़ी ।
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उगाई मैंने
गुलाब की फ़सल
हाथ घायल ।
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ज़ख्म़ हरे हैं
अपनों ने दिये थे
नहीं भरे हैं ।
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तंदूर तपा
धरती रोटी सिंकी
दहक लाल ।
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आग की गुफ़ा
भटक गई हवा
जली निकली ।
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मिट्टी का घड़ा
बूँद-बूँद रिसता
लो, खाली हुआ ।
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हँसते साथ
पोपल मुँह और
दूध के दाँत ।
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-डॉ० सुधा गुप्ता
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